पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५७

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द्वितीय सर्ग 1 7 प्रंम क्या है ? जीवन की गांठ,- बॅधी जिस से प्राणो की लडी, हृदय-कम्पन जिस से सचलित, थिरकता रहता है हर घडी, सधा है उच्छ्वासो का नाट्य, उसी के केन्द्र-बिन्दु पर सदा, बॅधी है उसके गुण मे, देवि, अॉख की चचलता-सम्पदा प्रेम क्या है ? तुम भी कुछ कहो, न देखो यो अकुला कर मुझे, तनिक हिय मे गड जाओ, प्रिये, द्वैत की ज्वाल रच तो वुझे। (६४) फल उठे इष्ट-सिद्धि का विटप, बनो तुम मै, मै तुम बन रहू, धनुष तुम धारण कर लो, और म्हारे लाज-वचन में कहू, ऊम्मिला का विभिन्न अस्तित्व, अरे हॉ, भूतल से मिट जाय, और लक्ष्मण का विरहित अह, स्वप्न की चादर सा सिमिटाय, एक में एक रहे लवलीन, बहे सुरसरि की पावन बहे हम उधर जहाँ है घहर रहा प्रेमाम्बुधि गहर, अपार धार, 1 १४३