पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६१

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द्वितीय सर्ग चिर -सग, बध गए (७१) एक की मृदु गोदी में एक- गुंथे से वे ऐसे हो रहे,- दे॒वेणी का मानो आवेश, उदधि मे मिलते ही सो रहे, बह उठा उनका सयत प्यार, पूर्णता का पाया अम्मिला की चादर पर आज, चढा लक्ष्मण का चोखा रग, वे अनम-नाराच, नडप उट्ठा मन का सुकुरग, ज्ञान ने क्षत पर पट्टी बाँध बढ़ा दी सौम्य अमन्द उमग । (७२) हो गए हृदय शान्त, निस्तब्ध, ललकते भाव हुए विश्रान्त ग्रन्थियाँ रस की घुल-घुल गई, हुई उन्मत्ता तटिनी शान्त गहर गम्भीर नेह बह चला, सुलिन-भेदन का रहा न त्रास, मर्यादित गया उल्लघन-उच्छवास, हुआ कुछ अभिनव सा उद्भूत ऊम्मिला-लक्ष्मण का ससार, प्रखर विप्लावन में भी सतत, हो रहा सयम का संचार । , 7 रास-रस-रति