पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६७

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द्वितीय सर्ग (८३) युगल जोडी के चारो नयन परिष्कृत , निर्मल, पावन बने, सतत अरुणा-करुणा तल्लीन, हो रहे वे मनभावन धने, नयन, हिय के वातायन बने,-- दिखाते अन्तस्तल की शान्ति , परम विश्रान्ति, चरम निर्धान्ति, छा रही जहा साधना-क्रान्ति, लखन के प्यार पगे वे नेत्र, ऊम्मिला के वे सकरुण नैन, साधना के वे गहर गवाह, मौन के वे अनबोले बैन । (८४) लखन के तपो-तेजमय नेत्र- ऊम्मिला को प्रतिबिम्बत किए,- ऊम्मिला की स्वप्निल अखडिया- लखन-छवि को हृ दयाकित किए, विजित इनके यो चारो नयन, बने मद माते, गहर, गभीर,- लगे छलकाने चारो ओर परम जीवन का मधुमय नीर, कुसासारिकता की मर-भूमि, पल्लवित बन में परिणत हुई, मुई तप्तता, चुई रसधार, एकता बही, मिट गई दुई ।