पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६९

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द्वितीय सर्ग श्रास, ? (८७) नहीं थी भ्रान्त धारणा वहाँ नही था बुद्धि-भेद का मन-मलिनता का कैसे ? कहाँ ? वहा हो सकता है प्रावास परस्पर सामंजस्य-विलास- जहाँ होता रहता है नित्य, जहाँ निशिदिन हिय में, सोल्लास, चमकता रहता ज्ञानादित्य, वहाँ फिर कैसी सम्भ्रम-बुद्धि ? न रहती भ्रान्त धारणा वहाँ, पूर्ण थी उनकी अन्त शुद्धि, अमा की वहाँ रजनियाँ कहाँ ? (८८) 'लखन-म्मिला हृदय मे बसा- परस्पर का निश्चल विश्वास, भक्ति से नित उन्प्राणित हुआ, लखन-ऊम्मिला श्वास-निश्वास, आत्म-अर्पण-स्वीकृति का चिन्ह, पूर्ण-विश्वास अपार, अखण्ड, स्नेह की सुस्थिर धृति का चिन्ह, परम विश्वास अमन्द प्रचण्ड क्षुद्रता का उस मे न विकार, न सशय का उस मे कुछ लेश, न क्लेश, न त्वेष, न ठेस अशेष, मिले हृदयेश परम प्रेमेश । 7