पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७१

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द्वितीय सर्ग (६१) क्षणिक बिछुडन की शैशव पीर- यौवनागम मे घुलमिल गई, प्रस्फुटन-व्यथा लिए अनजान, यथा, मृदुला कलिका खिल गई, "ऊम्मिला कलिका चिटकी सलज, लखन-मन-अलि करता गुजार, इधर से मधु-रस-धारा बही, उधर से उमडी गायन-धार, ऊम्मिला, लक्ष्मण बिना अपूर्ण, सुलक्ष्मण शून्य ऊम्मिला बिना, गणित की क्या ही गहरी सूझ कि दो को एक रूप ही गिना । (६२) "ब्रह्म-माया दोनो मिल गए,- के सूत्र बिखेर, बहुलता के अन्तर से उठी- एकना की आतुर-सी टेर मिलन मे द्वैत-भाव मिट गया, उठी लय स्वनित समन्वय-मयी, कट गया स्वप्निल सम्भ्रम-जाल, जग गई सुध-बुध तन्मय नयी, विषमता का कटु विष उड गया, सुधा-मधु से प्याला भर गया, ऊम्मिला-लक्ष्मण का चिर प्यार,- चर-अचर के हिय तर कर गया । जगन्नाटक V १५७