पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७३

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द्वितीय सर्ग विहार, (६५) विश्व ही नहीं, अखिल ब्रह्माण्ड- थिरक उट्ठा, यह स्नेह निहार, चराचर उत्कम्पित हो गए- देख दम्पति का पुण्य निशाएँ नाची ताल, दिवस नाचे ले कर करवाल, उषाएँ नाची हो बेहाल, मची सन्धाय हो कर लाल रास-मण्डल परिचालित हुआ, चराचर मे यति-गति भर गई, ऊम्मिला-लक्ष्मण की रस-राशि प्रकृति पर कुछ जादू कर गई। , गगन-अवकाश नृत्य कर उठा, नीलिमा भी कुछ कँपने लगी, सूर्य की वह वर्तुला विभूति- नाचती-सी कुछ मॅपने लगी, थिरक उट्ठी किरणे मुदमान, दिशाएँ नाची निपट अजान, वक्षस्थल गतिमान हुआ, लहरा अम्बर सुनसान, नील नभ-मडल, क्षितिज महान, सभी थल फैला नृत्य-विधान, अचर को दे कर यति-गति-दान, स्थैर्य कर रहा नृत्य-अनुमान ! शून्य का