पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७६

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ऊम्मिला प्रत्यक्ष, (१०१) समय की रसरी मे बँध नचे- दिवस, घटिकाएँ, वर्ष, मुहर्त्त, एक क्षण-क्षण मे होने लगा- चिरन्तन नर्तन-हर्ष-स्फूर्त, प्रलय मे भी ससृति के सूत्र,-- सर्ग मे भी विसर्ग के भाव,- दिखाई दिये स्पष्ट, मिट गया सकल दुराव छिपाव, असीमाकाश नाचने लगा- काल ही स्वय दे उठा ताल, अम्मिला-लखन, प्रकृति-चिरपुरुष, नचाते है ब्रह्माण्ड विशाल । (१०२) अमर जीवन ने अपनी बॉह,- मरण की ग्रीवा मे दी डाल, रास-गति अति परिचालित हुई, "ततक-ता-थेई" की दे ताल, हुए लय-उद्भव एक हो गए अप्यय अव्यय मरण का चरण-स्फुरण वन गया- अमृत गायन की अविरल टेक', मिट गया सशय सभ्रम सकल, मरण-जीवन का मिटा विभेद, ऊम्मिला-लक्ष्मण के स्नेह ने- जगाया सुप्त रुचिर निर्वेद । एक, -१६२