पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७७

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द्वितीय सर्ग मरण-जीवन का एक स्वरूप, किये हृदयगम यह चिर सत्य , देख कर ब्रह्माण्डो का नित्य, प्रेम-उत्प्राणित ताण्डव नृत्य, 'प्रेम-घर्षण अणु-अणु मे देख,- स्नेह-कर्षण सब ओर निहार,- ऊम्मिला-लक्ष्मण को नित देख,- परस्पर हो जाते . बलिहार; अथिर मति, दीन, बुद्धि के क्षीण बडे मूरख ये निपट नवीन, भक्ति की क्षीण रेख को गहे ऊम्मिला-चरण-तल्लीन । (१०४) स्वप्न-लोचना- सुलक्ष्मण दूलह गहर गभीर,- नेह छिटकाते, हरते चले- अखिल जगती की दुसह पीर, विश्व - अनुरजन - भाव प्रधान, लोक-सग्रह का मन्त्र महान, कर रहा है उत्प्राणित उन्हे,- जगत को मिला स्नेह-वरदान , मधुरिमा फैली है सब ओर, निराशा भगी, जगी चिर प्राश, त्रिगुण-मय जीव, ब्रह्म-मय हुआ, कट गए पार्थिवता-गुण-पाश । बहू ऊम्मिला