पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१८४

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ऊम्मिला वाले, १ अरे शून्य से गोल-गोल तुम, अन्तस्तल के अधिवासी, अहो, सकल ब्रह्माण्ड विश्व के, अण्ड रूप तुम अविनाशी, अरे, प्रज्वलित हृदय-वन्हि के,- मृदुल प्रसून विलक्षण-से, विमल करुण रस-निधि के विगलित तुम प्रहरी-से, रक्षण-से, कारण-जन्य-विश्व-पीडा के, तुम निष्कारण-बिन्दु, अरे, हिय-हिलोर दरसाने बिन्दु-रूप तुम सिन्धु, अरे । २ विगलित व्यथा वेदना की तुम तरल सियाही बन आयो, थकित कलम की शुष्क नोक से, मधु-मसि बन छन-छन आओ, ओ ऑसू, तुम बरस पडो, यह- प्यासा है कागद मेरा, प्यासी कलम , हृदय प्यासा है, प्यासो का है यह डेरा, विप्रयोग की कथा लजीली लिखवा दो, आओ, आओ, मँडरायो, उभडो, सरसो, कुछ- अपनी बूंदे ढरकामो ।