पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सर्ग मरु की तप्त-व्यथा-सा हिय मे हा-हा-कार अमित छाया, यौवन की नित चरम निराशा का-सा प्यार उमड पाया, हरे-भरे से मन-मडल में निपट विछोह निखर आया, ममता मिटी, मोह यह छूटा मिटा सॅजोग, मिटी माया, निपट निराशा की निशीथ में लगन जगी, लौ लगी भली, इधर-उधर ऊम्मिला-लखन की स्मृति-प्रदीपिका जगी भली । १२ प्यार पगे, अनुराग रेंगे, नि शब्द ठगे प्रिय भाव जगे, त्रास भरे, विश्वास भरे, अति- प्यास भरे, हिय-घाव लगे, अमित,श्रमित,कम्पित,अति शकित, रजित, सचित शब्द हुए, थर-थर,सिहर-सिहर, झर-झर कर उपलब्ध तार बॅधा हिचकी का, फूटा- स्वर पीडा के पचम का, देख ऊम्मिला की गति, टूटा-- बाँध लखन के सयम का । हिय-मुक्ता +