पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१९२

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ऊम्मिला मानस-क्षितिज, वियोग-मेष से पाच्छादित हो गया घना, यह सुखभरा सँजोग बन रहा क्षणभगुर जीवन-सपना, प्रॉखो मे अँधियारी छाई, पडी पुतलियो मे कॉई , बढती ही-सी अन्तरतर मे चली गई दुःख-परछाई , विमल ऊम्मिला के सगी ह उद्यत चलने को वन को, सीता-राम लिए जाते है जम्मिल-प्राण लखन-धन को । प्रिय-अवलम्बित हृदय विकम्पित, सचित नेह अश्रु-कण मे, रोमाचित तन, कठिन लखन-प्रण लगन-मगन-मन क्षण-क्षण मे, रमे लखन व्रण-खण्डित, मण्डित- प्रण, कर्तव्य-प्रेम-रण मे, थी दोलाचल' चित्तवत्ति-सी इधर ऊम्मिला के मन मे, नभ-जल-थल मे, अनिल-अनल मे, करुणा का उमड-उमड कर,उबल-उबल कर, हिय इक पारावार हुआ । सचार हुआ,