पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१९९

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तृतीय सर्ग लम्बे, सघन, कृष्ण कुन्तल से ललक लखन-अंगुलियाँ मिली, कधी-सी बन इधर-उधर वे, केश-पुंज मे हिली-डुली, वत्सलता, सान्त्वना, प्रीति अति बरसी अगुलि-चालन से, ज्यो विश्वास उमड पडता है कथित वचन-प्रतिपालन से, रामानुज के प्राण पियासे- उलझे केश कलापो मे, हृदय बिध गया "हा,ना' के उन टूटे-से सलापो ३२ नख से शिख तक, लोम-लोम तक, अन्तर-तर का दाह हुया, आज ऊम्मिला की कम्णा का, लक्ष्मण-प्रण से व्याह हुआ चाह आह की राह चल पडी, थाह-अथाह हुई हिय की, उतर गई ऊम्मिला बहुत ही गहरे, गह ग्रीवा पिय की, मोह, बिछोह, टोह लेने को पाये लक्ष्मण के मन की, किन्तु बुद्धि कैसे विचलित हो श्री ऊम्मिला-प्राणधन की ? १८५.