पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 १० इधर यह 'दक्षिणेन्द्र-द्वार', नव है जनाता चण्ड रवि का खर विभव है , विदेही नृपति का यह कीत्ति-दव है जलाता जड अकर्मों का कुरव है । 3 . नृपति ने दिशा दक्षिण द्वार वर को- निवेदित है किया इन्द्र प्रवर को , प्रखर सकेत कर, प्रति आर्य नर को- दिखाता कर्म-पथ शर-चाप-धर को। १२ पुनीता सॉझ को वन्दन समय जब, जिधर, मुख फेरती नर नारियाँ सब उधर को दीखता 'यम द्वार' है अब, कि मानो दीखता है विश्व विप्लव । , उधर यह पूर्व 'ब्रह्म-द्वार' प्यारा- दिखा उत्पत्ति-तत्त्वो का पसारा- बहाता नव्य रस की गान-धारा , इधर 'यम द्वार' ने लय को सॅभारा। 3 उधर उत्पत्ति है तो इधर लय है उधर जीवन नवल का यदि प्रणय है, इधर तब क्षुब्ध सरिता शान्तिमय है , जनक-नगरी, अहो, निर्धान्तिमय है ।