पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला ४६ यह वियोग-आखेटक तक-तक मार रहा है तीर, प्रिये, प्राणो ही मे नही हो रही-- पसली तक मे पीर, प्रिये, छाती पर लेंगे वाणो को- होगे नहीं अधीर, प्रिये, हम न दिखायेगे जग को निज दुख, हिये को चीर, प्रिये, मुझे सम्हाल, सम्हालो निज को, आज पडी है भीर, प्रिये, मा को, तात चरण को देखो, नैक धरो चित धीर, प्रिये । का ५० मुझको जगल मे जाना है मंगल सदेश लिए, सीय-राम-अनुगमन करूंगा- मै निज तापस वेश किए, यह सन्यास चतुर्थाश्रम का द्वितीयाश्रम में प्राया, और छुट रही है मम ह्यि की तुम सी यह मृदुला माया, टूट रहे हैं प्राण, सुलोचनि, हिय मे हूक अचूक उठी, झलकी है मन-मृग-मरीचिका, यह वियोग की लूक उठी । १६४