पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२१२

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ऊम्मिला ५७ ले चल, "तम सो मा ज्योतिर्गमयत्वम्, मृत्योर्मा अमृत विद्या से सयुक्त मुझे कर, अमृत चखा, हे अचल अटल !' महामन्त्र है यह हम सब का, इसे प्रचारित करने को- जा रहा हूँ मैं, इसके- रव से वन-नभ भरने को, यह पावन सब जगती का क्लेश हरे, अभय बना दे, अमृत पिला दे, मृत्यु-भीति नि शेष करे । . सन्देश हमारा, 'अग्ने नय सुपथा राये' का अनल-मत्र जपते-जपते, अपथ विजन को सपथ करूँगा मैं धूनी तपते-तपते, आर्य सभ्यता, आर्य ज्ञान औ'- आर्यों की सस्कृत वाणी,- का वैभव, वेद-भारती कल्याणी,- आर्यों की ये सब विभूतियाँ, वन मे प्रसारिता होगी, जटिल कुटिल अज्ञान-भावना- निश्चय पराजिता होगी। पराऽपरा विद्या