पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२१४

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ऊम्मिला दिशा, यह वन-गमन नही है, यह तो- मेरी तीर्थ यात्रा इस प्रवास मे आदर्शों की चिन्मय सम्पुट मात्रा नग्न चरण, नि साधन जीवन, जन-धन-हीन प्रवासी ज्योति अखण्ड-प्रचण्ड जगाए विचरूँगा सयासी मैं, ज्ञान-शिखा, प्रज्वलित अनिगित दिखलाएगी मुझे वह प्रकाश आलोक हरेगा- वन-जन-हिय की कुहू निशा । ६२ सकल लोक रजन, जन-मन के- सम्मार्जन का कार्य, प्रिये, इस से कैसे मुख मोडे हम, धर्मोत्प्राणित आर्य, प्रिये ? हमे धन्य करना है वन की वसुधा का कौमार्य, प्रिये, कितनी दया राम की, उनका- कितना है औदार्य, प्रिये, राज छोड, वैरागी बन कर, भोग छोड, योगी बन के,- विजय-गमन-प्रण ठान चले, बन- गहन प्रवासी वन-वन के ।