पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२

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पुर-प्रदक्षिणा १ चलो देखे जनक की राजधानी, विराग 'रु भोग की नगरी पुरानी , नृपति जिस देश के है तत्त्वज्ञानी, जिन्हे सम है ज्वलित अगार, पानी । २ शिथिल-सी कल्पने, यह पुण्य धाम- करुणरस मूत्ति का है पितृ-ग्राम , ठहर प्राचीर बाहर, एक याम, करो सुप्रदक्षिणा नयनाभिगम । ३ नगर प्राचीभिमुख है 'ब्रह्मद्वार, जिसे प्रति प्रात बालातप निहार- सुमन से मृदु करो का विमल हार- मुदित मन दे रहा है बार-बार । ४ विमोहक जगन्नाटक सूत्रधार- सुगूढ ज्ञेय तत्त्वो का प्रसार- सदा क्यो कर रहा है बार-बार ? यही सकेत करता पूर्व-द्वार ।