पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२३

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तृतीय सर्गः ७६ चमका सूर्य, सौर-मण्डल सब एक ताल पर थिरक उठा, भूमण्डल, आकाश, खमण्डल रास-खेल में निरत लुटा, रवि,- 1,-उस कवि-पुराण-अनुशासक की ज्वलन्त कन्दुक-क्रीडा, किरणे, अणोरणीय भावना की वे अति उत्सुक पीडा, प्रथम बार चमकी थी ये सब तब क्या छटा निराली थी, मानो किसी मत्स्य-वेधक की वह किरणो की जाली थी । ८० उस प्रभात म किरण बलाएँ- लेती थी सचराचर की, जैसे माँ फूली फिरती हो बेटी देख बराबर की; नाच रही थी किरणे, नचता- था जग का व्यापार, प्रिय, जैसे नव-प्रेरणा-तरगित होता हिय-कासार, प्रिये, पहले-पहल झॉक विटपो ने देखी जल उत्सुकता, प्रिय-हिय दर्पण मे, ज्यो निरखे अपनी झॉई। परछाई , २०६