पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२७

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तृतीय सर्ग ८७ भूमण्डल में उस प्रभात में प्रथम-प्रथम ही फडके पख, विहग चहके, बही विभास-गान-स्वर-धारा रह-रह के, चेतनता उड्डीयमान हो फहराई नीलाम्बर मे, मानो चुम्बित वेणु-तरगे लहराई मानस-सर मे, निर्मल जल छल-छल-छल-छल कर छलका सब दिड मडल मे, मूक लूक मय मौन मरुस्थल, ध्वनि-जल-सिक्त हुआ पल मे । वे आँसू कुसुम-दलो पर झलक उठे, वे प्रोस-बिन्दु न्यारे-न्यारे, अमल कपोलो पर ज्यो झलके अश्रु-बिन्दु प्यारे-प्यारे, नवल जीवनोल्लसित क्षणो के आनन्द भरे, प्रकृति-बधूटी की मन्थन-रति के वे श्रम-कण बिन्दु खरे । उन मे इकरगी किरणो की दीखी सात-सात झॉई, उस प्रभात मे यह अनेकता गुंथी एकता में आई ।