पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२८

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कम्मिला नवोम्मिले, ८६ कुसुम खिले, मकरन्द रिले, द्विज- वृन्द मिले, द्रुम-शिखर हिले, प्रथम प्रभात क्षणो मे फैली चेतनता, मम निखर चले, जडता से विरहित हो कर जीवन-भाव, प्रिये, अपरा-परा प्रकृति का न्यारा- न्यारा हुमा स्वभाव, प्रिये । एक अचेतनता मे उलझी, चेतन-लीन जड-चेतन, दोनो विराट् की सेवा में तल्लीन हुई । दूजी जागे द्विपद, चतुष्पद जागे, बौराने से जल-थल मे, हुआ प्राण-निर्माण अनोखा जडता के इस बल्कल में, पल-पल मे, जल-थल में लहरे तरगित प्राणो की, प्रकृति अतिथि सेवा करने लग- गई, नये मेहमानो की, प्रजनन, सतत आत्म-सरक्षण, हुए स्वभाव-सिद्ध गुण ये, उस प्रभात मे गुण-बन्धन मे फंसे ईश चिर-निर्गुण वे । २१४