पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२३१

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तृतीय सर्ग ये है मधुर भरने । आदि प्रभात काल क्रीडा के सस्मरग-से, वर्तमान विज्ञान-प्रगति के ये है विगत अधिकरण-से, मेरी स्वामिनि, प्रथम प्रात का ऋण हम सब के ऊपर है, उस ऋण का सम्पूत्ति-कार्य यह देवि, कठिन है, दुस्तर है, यह विद्या-विज्ञान-प्रगति-ऋण व्याज सहित चुकता करने,- राम-लखन बन जाते है, ऋण- की पाई-पाई ९६ वन में प्रथम प्रभात-क्षणो की- छवि का आकर्षण होगा, उसी प्रथम प्रातर्वेला का कुछ-कुछ शुभ दर्शन होगा, वन मे, नव आदर्शोत्प्राणित लखन-राम-लीला होगी, अथवा प्रथम-प्रभात -प्रेरणा "फिर से गतिशीला होगी, वैसे ही विस्फारित होगी- , वन-जन की आखे चकिता, प्रथम-किरण-वेला मे चमकी थी थकिता-थकिता । जैसे