पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२३५

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तृतीय सर्ग पान १०३ जिन अोठो ने, सजनि, तुम्हारे . अधरामृत का पान किया, जिन ओठो को तुमने, वरदे, सतत अमिय-रस-दान दिया, उन अोठो के लिए आज है- आए गरल भरे प्याले, आज पड गया हूँ मै, सुन्दरि, ✓ काल-कूट-विष के पाले, दे दो तुम बरदान कि मैं कर- जाऊँ वियोग-गरल, चुपके-चुपके पी जाने दो, यह विषाद-मय गरल तरल । १०४ व्यथा-शून्य मै नही, नही है- मेरा यि यह अचल उपल, मत समझो कि नहीं उठते है, प्रिये, बुलबुले उबल-उबल, सरवर हूँ मै वह कि भरा है जिस मे अमल मिला-जल, जल मै वह हूँ जिस में होती रहती पल-पल मे हलचल हूँ वह जो मॅडराती रहती अन्तर मे चचल, चचल अन्तस्तल मै हूँ वह जो बाहर है अचल-अटल । हलचल, २२१ -