पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२३७

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तृतीय सर्ग १०७ जाना,- 1 एक विचार-काल को करके- ऋमित, दूसरे मे यो ही बडा व्यथा-मय होता- है परिवर्तन का पाना,- फिर क्या कहना विप्लवकारी का? वह तो है मूर्त-व्यथा बडी अबोली, बडी ठठोली- मय है उसकी स्फूर्ति-कथा, अधकार में नव प्रकाश को छिटकता वह मस्ताना, अपनी धुन का धुनी, घूमता- धरे प्रचारक का बाना १०८ उसी पुण्य सक्रान्ति-काल की घटिका आई आज, प्रिये, इसीलिए मिल गया हमे यह विस्तृत विपिन-स्वराज, प्रिये, हम सन्यासी, विपिन-प्रवासी, नव सन्देश प्रचारक हम, मन-भय हारी, मगलकारी, सब जन-गण-उद्धारक हम, है विचलित भावना यहाँ, हम- क्यो न नियत्रित करे उसे ? व्यथा बुलाती हमको, हम भी क्यो न निमन्त्रित करे उसे ? २२३