पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२३९

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तृतीय सर्ग तुम क्या जानो देवि, तुम्हारी- "हॉ-हाँ" में कितना बल है ? तुम क्या जानो कि इस तुम्हारी-- स्वीकृति में कितनी कल है ? है समर्थ तव भू - विलास यह विश्व समग्र नचाने में- तव दृक-पात समर्थ सदा है नव विद्रोह मचाने में, तुम हो प्रकृति रूपिणी देवी- तुम हो आदि शक्ति-प्रतिमा- त्वमसि मदीया चिर-प्रेरणा- त्वम्हि मदीय भक्ति-प्रतिमा । ११२ नव तुम मेरा साहस, बल, वैभव, तुम मम हास-विलास, प्रिये, तुम मम नेह-सरणि, तुम मेरा- सन्देशोल्लास-प्रिये, तुम मम व्यथा-कथा, तुम मेरी- निवासिनी अतस्तल की, तुम अन्तर्यामिनि, स्वामिनि तुम हो इस लक्ष्मण निश्चल की, तुम जानो हो, सब कुछ बाते देवि, लखन अन्तर-तर की सभी भावनाएँ जानो हो तुम मेरे जीवन भर की । २२५