पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४१

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तृतीय सर्ग शिखा, परम सहानुभूति रूपा तुम, चरम, विषम वेदना-मयी, तुम हो बलिवेदी की उठती- परम पावना, नयी, आत्माहुति का यह क्षण आया है अपना खप्पर लेकर, कर लेने दो इसका स्वागत मुझको निज जीवन देकर, यह है अग्नि-परीक्षा, रानी, बलि-दीक्षा दो तुम्ही मुझे, "स्वाहा” कहने के पहले ही, देखो, कही न अग्नि बुझे । की, यह आज आत्म-लय की, तन्मयता-, ज्ञान-तरग उठी- मेरे सात स्वरो मे जागृति,- की यह नवल उमग उठी, मेरी वीणा आज मिला दो, प्रानो, देवि, उसी स्वर मे, इसकी ये खूटियों खीच दो, तारतम्य बॉधो, मेरी रानी तनिक मिला दो- मेरे स्वर में स्वर अपना, मेरे स्वर को आज सिखा दो ठहर-ठहर थर-थर कपना । परमे, २२७