पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५०

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अम्मिला सन्तत दीक्षिताए, हम नारी है चिरप्रतीक्षिका, चिर परीक्षिताए, चिर वियोग यज्ञाहुति से हम हुई निमृत कुटी की द्वार-देहली पर चिर नेह-प्रदीप धरे,- युग-युग लौ उकसाती रहती बाती, हरे, हरे, । चौदह बरस ? नही प्रिय चाहो- यदि, चौदह युग लौ जानो, खूब करो उद्धार विश्व का, ज्ञान-रश्मिया फैलायो । मैं नारी हू, देव, बनी हू मैं नित सग्रह-भाव मयी, अपनी निधियो के प्रति मै हूँ कुछ-कुछ कृपण स्वभावमयी, मै गृह भी हूँ, गृह-स्वामिनि- हू, घर की रखवालिन हूँ, मै हूँ अपने घर की रानी निज उपवन की मालिन हूँ, मै बखला उठती हूँ, प्रिय, यदि कोई वस्तु j वे है मेरे शत्रु कि जो मम उपवन-नाश-प्रवृत्त मेरी