पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५२

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कम्मिला ✓ १३७ मुनती हूँ कि नृपति दशरथ का प्रदत्त वह वर, जिसके कारण आर्य राम, औ श्रीलक्ष्मण होगे वनचर, होगी श्रीरामानुगामिनी सीता जीजी, जानूँ हूँ,- अपनी तेजस्विनी बहिन को बचपन पहिचानूँ हूँ, यह प्रतिपाल वचन का क्या है ? यह वर है क्या बला, कहो धर्म-कर्म है कहाँ? किधर है- निष्ठा इस मे भला, कहो ? ? यह है सब पाखण्ड, प्राणप्रिय, बुद्धि दोष का यह व्यापार,-- जिस के वश नरपति ने खोया यह समस्त सद्भाव, विचार, परिमित है, नि सीम नहीं है- धर्म, वचन-प्रतिपालन का, रखना पडता है विचार भी जन-समाज-परिचालन का, वचन पालने में होता है पूर्ण विचार हितामृत का,- देश, काल, पात्रता, परिस्थिति, धार्मिक भाव, नृतानृत का । २३८