पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५३

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तृतीय सर्ग १३६ जो प्रभु बरब्रूहि कह, देना भी क्या कोई सहज ठठोली है ? वर दे भिखमगे वामन वे? जिनके काँधे झोली है ? 'वर देना है काम उसी का अन्तर्यामी सर्व-शक्ति जिसके एकाशस्थित निष्कामी है । बडी अनोखी बात कि अब वर देने लगे द्विपद जन भी,- भाव-समत्व-स्थिति है जिनके हिय मे नही एक क्षण भी । १४० यदि तुम मेरे प्रेम नेम-वश हो कर मुझे एक वर दो,- और मॉग लूं में तुम से यह, कि तुम ब्रह्म-हत्या कर दो। तब क्या वह वरदान तुम्हारा, बोलो, धर्म-विहित होगा ? वह व्रत परिपालित होगा क्या- उस मे धर्म निहित होगा? तुलनात्मिका-बुद्धि से व्रत का पालन नही रहित होता व्रत-परिपालन सदा, प्राण प्रिय, ज्ञान-विचार सहित होता । ? २३६