पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५४

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अम्मिला १४१ यह है एक कुपरिपाटी, प्रिय, यह सम्पूर्ण स्वधर्म नही, सोचो तो, इस धर्म-धर्म मे हो जावे न अधर्म कही, मा कैकेयी धर्म-कर्म का लोम-चर्म है खीच अपने स्वार्थ-बीज को वे है इसी बहाने सीच रही, यह अज्ञान भयकर है, प्रिय, तात-चरण श्री दशरथ का, खो बैठे हे सद्विचार सब वे निज कृति के इति-अथ का १४२ जन-गण-मगलकारी सीता- रमण आर्य श्रीराम सदा, धर्म धुरन्धर, देव-पुरन्दर- वन्दित, वे निष्काम सदा, वे है मेरे पितृ देव सम सदा समत्व बुद्धि वाले, उन्हे समझ क्या सके स्वार्थ-रत मूर्ख ममत्व बुद्धि वाले ? आर्य राम के एक चरण नख पर त्रैलोक्य निछावर है, उन का ही तो है इस जग में जो जगम है, स्थावर है । २४०