पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला १४५ इस अन्याय, अधर्म के गिर पर चरण-प्रहार करो, अपनी प्रज्ञा के तीरो के तक-नक तीखे वार करो, नाश करो इस अन्ध दम्भ का, आज अवध को पूत करो, पाखण्डमयी धार्मिकता भस्मीभूत ज्ञान-रश्मियाँ फैलाने बन-निर्जन यहाँ अवध को छोडोगे क्या यो ही निविड तिमिर घन में ? को तुम करो, जाओगे तुम १४६ यह अविचार विपिन जाने का राम-हृदय आया 7 उनके विमल हृदय-दर्पण मे पडी अमन् की क्यो छाया ? या तो सब जग पागल है, या- फिर मैं ही हूँ उन्मत्ता,- सब जग ? या मै ही भूली हूँ धम्मा-धर्म, कर्म-सत्ता? राम, लखन, सीता, कौशल्या, मात सुमित्रा, सब अरुझे? या फिर, प्रिय, मेरे हीहिय की ज्ञानाग्नि के स्फुलिग बुझे ? २४२