पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५७

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तृतीय सर्ग १४७ माना मैं नारी हूँ कृपणा, मै हूँ स्वार्थ-स्वभाव मयी, किन्तु तत्व-विश्लेषण की है, मुझ मे अविकल चाह नयी, मुझे तनिक भी सग-दोप की नहीं दीख पड़ती छाया, मोह नहीं है, लोभ नही हैं, ममना-माया, गह-भावना से उत्प्राणित मेरे ये विचार, प्यारे, आज उमड अगए है बरबस, न्यारे-न्यारे नही निर्णयार्थ, तया, १४८ तुम कहत हो वन-जन-मन में होगा ज्ञान-विकास नया, मैं कहती हूँ प्रथम अवध मे करो अधर्म-विनाश धर्म-धुरीण राम के भाता, पूज्य सुमित्रा के जाये, यह अन्याय हो रहा है, प्रिय, तब सम्मुख, यह अधर्म का भाव यहाँ पर फैल रहा है जन-गण पहले इसको करो पराजित, प्रिय, तुम निज जीवन-रण मे । दाये-बाये;