पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५८

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ऊम्मिला प्रिय, का ही १४६ धर्म-धारणा मे, मेरे तुम प्रचण्ड-सी क्रान्ति करो, सद्विचार, सद्भाव, तर्कमय- कृति से सब की भ्रान्ति हरो, कह दो आज पिता दशरथ से कि यह अधर्म नहीं होगा, कह दो, लक्ष्मण के रहते यह यह घोर कुकर्म नही होगा, राज नहीं कैकेयी का यह, दशरथ का न स्वराज यहाँ, जन-गण-मन-रजन होता है अधिगज यहाँ । १५० मन्त्र-मुग्ध मणि-फणि अनन्त-सम तुम कैसे यो दीन हुए हे मेरे अपराजित, बोलो, किस मे तुम कहाँ गई वह सहज वीरता उचट चोट करने वाली ? कहा गई हुड कारमयी वह वाणी, भय भरने वाली ? भू-लुण्ठित कर दो अधर्म यह अपने चरण प्रहारो से, कम्पित कर दो दिग-दिगन्त यह निज गभीर ललकारो से । ? लीन हुए ?