पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२६५

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तृतीय सर्ग वह प्राणो जग ? जग पूजित है सत्य-धर्म-रत, सन्निष्ठा-मय विद्रोही- गतानुगति का वह विध्वसक का निर्मोही,- परिपाटी-द्रोही विद्रोही की आवश्यकता धीर उत्मण, सतत प्रगति की वह परमावश्यकता यदि न जलाए ज्वाला उस के नव विचार की दाहकता- तो फिर कैसे हो सकती है निखिल लोक सनाहकता १६४ उस के हिय मे है अस्वीकृति, निष्ठा-प्रेरित नास्तिकता, उसकी नास्तिकता मे भी है की आस्तिकता, नासदीय सूक्तोक्त भावना है हिय मे उसकी आँखो मे रहती है प्रश्न-चिन्ह की चिन्तन मे ललकार भरी है रसना मे है 'नही | नहीं । प्रबल पुराण -पुरातनता कर सकती विचलित उसे कही ? शुद्ध तर्क मगलकारी, चिनगारी, २५१