पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२६७

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तृतीय सर्ग ? तुम जग १६७ "पर-पर मैं क्या कहती हूँ औ' यह किस से कहती हूँ मुझे सँभालो, प्रिय, प्रवाह के प्लावन मे मै बहती खूब जानती हूँ मेरा यह कथन व्यर्थ है, है नि स्सार, ओर, है दूजी ओर कृत्स्न जग का अविचार, मुँह बाये चौदह वर्षों की अवधि खडी है सम्मुख आज, हा । कैकेयी सास, बनी क्यो- भर की दुर्मुख आजी । १६८ ओ प्रिय, तनिक झॉक देखो तो, हुआ हृदय सूना-सूना, मुझे समस्त विश्व लगता है प्रिय, अतिशय ऊना-ऊना, चौदह बरस, एक सौ अडसठ,. अरे महीने है इतने । पाँच सहस्त्र एक सौ दस-दिन क्षण मुहूर्त ये है कितने ? सचमुच समय अनन्त-वन्त है- इस क्षण इसका भान हुआ, लम्बी होती है दुख-छाया इस क्षण इसका मान हुआ । २५३