पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२६९

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तृतीय सर्ग किसने? १७१ शून्य हृदय, मन शून्य, शून्य चित, शून्य कल्पना का नियम-नियन्त्रण-शून्य नियति है, सुप्त जगद्धर विश्वम्भर, यहाँ घृणित अन्याय हो रहा, 1 सुनने वाला नहीं यहाँ राज करेगे भरत ? लखन वन- वन विचरेगे यहाँ, वहाँ ? घोर अनन्त निराशा का यह चंदुआ याँ ताना किसने? परे, आज जीवन का पूरा ताना-बाना १७२ तार-तार सब अलग हो गए, टूटा तारतम्य- व्यापार, असहनीय हो गया दैव को, लखन-ऊम्मिला का यह प्यार, बिधना आज चुनौती तुझको, कर ले तू कस-कस कर वार, देख, रहे अवशेष न तेरा- निष्ठुर अत्याचार, हाँ, हॉ सब कुछ सहना होगा, सह लूंगी, हॉ, सह लूंगी, तुम वन जानो, किसी भॉति में यहाँ अवध मे रह लूँगी । कोई २५५