पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२७१

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तृतीय मर्ग १७५ क्यो न मुझ तुम वन बीहड मे संग-सग लेकर चलते 7 क्यो छोडे जाते हो मुझको अवधि-वह्नि में याँ जलने ? संग चलूंगी, वन विचरूंगी, तुम पर न्यौछावर हूँगी, मिला कण्ठ मे कण्ठ, गान से मैं अटवी को किन्तु जत्पना है मेरी यह पाया इसका ध्यान मुझे, में क्या-क्या कहने लगती हूँ इसका रहा न ज्ञान मुझे । दूंगी, मॅडराने लग गया धुओं यह मेरे मानस-मडल में, यथा सृष्टि के पूर्व धूम्र था पूरे ब्रह्म-कमण्डल सब विचार धूमिल से है, वस- एक वेदना स्पष्ट धूम्र-आवरण के अन्तर से अग्नि-शिखा आकृष्ट ना जानें क्या हुआ कि मन में मूक-चूक रही सब बाते तो लुप्त हो चुकी, एक हूक अवशेष रही ही शेष २५७