पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२७९

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तृतीय सर्ग १६१ आर्य - बधू कर उठता है अवा हृदय यह हाहाकार विलाप, प्रिये, चौदह बरस, अवधि लम्बी है, दुख का तौल न नाप प्रिये, पर, तुम आर्य-नन्दिनी, विमले, विमण्डिता, करुणामयी सुमित्रा माँ की स्नेह-मूर्ति तुम अखण्डिता, मुसका कर कह दो कि अजी, हाँ , निम्मोही, जाओ,- ज्ञान-विराग मुझे न सिखायो, जाओ वन, जन-मन भायो । 7 जामो, १९२ तुम ने मेरी माँ को देखा केवल सुख की घडियो मे, अब देखना महत्ता उनकी तुम इन दुख की घडियो मे, कैसे वे तुम पर नित प्रति बलि- बलि जाएँगी, छिन-छिन मे, तनिक देखना कैसे तुमको जोहेगी निशि मे, दिन मे, कैसे तुम्हे सान्त्वना दूं मै ? क्या कह के समझाऊँ मैं तुम सब कुछ जानो हो, तुम को कैसे धैर्य बँधाऊँ मै ? ?