पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८१

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तृतीय सर्ग धन्य धन्य तुम, धन्य राम है, धन्या है जीजी मेरी, धन्य नृपति, वन-वास धन्य है, धन्य सास तीजी मेरी, धन्य अरण्य, धन्य कोगलपुर, जिस मे खेले राम-लखन, धन्य यह घडी जब बन जाते सीता - लक्ष्मण राम चरण, धन्य सँदेस, धन्य यह जीवन धन्य स्वधर्म, स्व-कर्म नया, धन्य वह घडी शुभ भविष्य की धर्म नया । - जब फैलेगा १६६ करो अर्चना नव प्रभात की, हिरण्मयी उस प्रतिमा की, वन मे अलख जगानो, देखो- अपलक, ललक झलक-झोंकी, पटपरिवर्तक, काल-प्रवर्तक, नर्तक, ज्ञान-प्रगति-दाता, तुम सस्कारक, उपचारक तुम, धर्म कर्म सद्गतिदाता, दीप संजोए, तुम बन जानो, तिमिर हरो, अज्ञान हो, यह भूभार उतारो, जन-गण- मन को तुम सज्ञान करो । २६७