पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८५

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तृतीय सर्ग २०३ सब बाह्य जग, सब अन्तर जगत, सब- काल, सब देश मौन-मय बन जाते है, काल-अशेषता, आकाश-अनन्तता मिल के, एक होती, मौन के वितान तन जाते है, अहो-रात्रि धीरे-धीरे, गुप-चुप नाचते से, दीखने लगते हैं जब साजन जाते है, एक-एक निमिष निस्तब्ध, शब्द दीन हुए, अनन्त अयुत युग बन-बन जाते है, रसना, निस्तब्ध होती, कण्ठ ध्वनि-हीन होता, मौन देव यि में मगन मन आते है, पीतम की कण्ठ ध्वनि के कम्पन-सस्मरण- कण, स्मृति-प्राकाश मे छन-छन आते हैं। २०४ कुछ ऐसी दाहकता होती है विरह की, कि- हिय मे सहसा अनोखे दाग दगते है, बोल चाल की रुझान मिटती अपने आप, भाषण प्रवृत्ति-पुज अवश भगते है, हृदय-कुरगम तडपता चुपचाप जब कि व्यथा के तीखे बाण आ लगते है। अग अग सिहर-सिहर कॅप उठते है, रोम-रोम अनबोली बिथा मे पगते हैं; कथा भरे मौन नैन सैन, अनबोले बैन, शब्द-रस-माधुरी को सहसा ठगते है लगती ठगौरी बौरी भोरी-भोरी भावना को, अलसित नयन मौन-भाव जगते है । 1 २७१