पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८६

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ऊम्मिला २०५ "मेरी विमल ऊम्मिला को तुम खूब प्यार कर लो, देवर, कहाँ मिलेगे चौदह वर्षो तक फिर ये मधु-मधुर अधर? पियो ऊम्मिला रानी का रस- स्नेह आज अजलि भर-भर, ओ निष्ठुर, प्रो विकट धनुर्धर, अहो हठी, मेरे देवर।" करुणामयी जनकजा सीता जब आकर यो बोल उठी, तब उस मौन-उदधि में मानो कल्लोल उठी । शब्द-मयी २०६ लक्ष्मण-भुज-वेष्टिता ऊम्मिला सकुच गई, लक्ष्मण झिझके, ब्रीडा रजित वे कपोल हो- गए मिला के निज के, "बलि जाऊँ, दोनो ऐसे ही बने रहो तुम कुछ क्षण को, देवर, यो ही गोदी में तुम लिए रहो अपने धन को, 'यह मेरा मातृत्त्व अस्फुटित तनिक धन्य हो जाने दो मेरी वत्सलता को, देवर, तुम अनन्य हो जाने दो।