पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८९

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तृतीय सर्ग बिचरे, २११ लक्ष्मण, सीता और ऊम्मिला दोनो के सँग यो निखरे,- ज्यो मध्याह्न, उषा सन्ध्या को लेकर, सग-सग "सीता और अम्मिला दोनो भुज भर ऐसे चिपट गई,- जैसे प्राशा और निराशा रीझ परस्पर लिपट गई, फिर धीरे से विमल ऊम्मिला बोली छाती किए कडी, “जीजी हृदय मसोस रहा है, ना जानूं क्यो, घडी-घडी ".. २१२ 'मैं जानूं हूँ, बहिन अम्मिले, क्यो अकुलाता विकल जिया, मैं जानूँ हूँ कि क्यो तडपने- लग जाता है, हाय, हिया , बहिन, तुम्हारे हृदय-सिन्धु के बडवानल की ज्वालाएँ- मै जानूं हूँ कितनी शोषक अति विकरालाएँ, बस चलता तो मैं न कभी यह बुरी घडी आने देती, बस चलता तो लखन लाल को मैं न कभी जाने देती । २७५