पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९

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प्रथम सर्ग १० भारी-भारी अतुल रथ से मार्ग है खूब पूर्ण, धीरे-धीरे शकट चलते हे किए भूमि चूर्ण, हस्न्यश्वो के विकट रव से गूजती है अटाएँ शस्त्रास्त्रो की खर चमक है या कि विद्युच्छटाएँ ? इन्द्रद्वारात्-प्रसृत पथ है उत्तरीया दिशा मे, फैला यो, ज्यो स्वरित रव हो मूर्छिता-सी निशा मे देखो, है 'वामन सुपथ' की शान्त शोभा अखण्ड, शिल्पी का है यह सुखद-सा शान्तिदा कीत्ति-दण्ड । १२ रम्योद्यानो मय यह पुरी शोभती यो अनूपा, मानो कोई नवल तरणी मोद-मुग्धा, सरूपा, क्रीडोत्कण्ठामय चपलता की हीली लरी-सी, फूलो वाली हरित लतिका से सजी वल्लरी-सी । धीरे-धीरे पवन बहती, गुल्म औं' पुष्प नाना- उग्रीवी हो तरणिवर को चाहते है बुलाना , स्निग्धच्छाया मय सधन-स नीड से बोलते ह- पक्षी बेठे, मुखरित, अहो, माधुरी घोलते है । १४ ले आए है सकल जग की स्नेह की येपिटारी, आ बैठे है जनकपुर की वाटिका मे विहारी क्यो जाता है, पथिक, अब तू दूसरी ठौर ? श्रा, रे, सारे त्रेता युग मधुर की माधुरी है यहां, रे । 2