पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९०

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ऊम्मिला २१३ नही शक्ति श्री राम स्वय की जो कि रोक रक्खे इनको, कौन कर सके है अजलिगत इस दिन-मणि को, इस दिन को? मानो लूट चली मै तुम को, अनुभव करती हूँ ऐसा, यही सोचती हूँ कि हाय, यह- मेरा है अनर्थ कैसा ? पर, क्या करूँ नही समझेगे ये लक्ष्मण अपनो से ही जोर चले है,- ये बन रहे पराए-से। समझाए से, २१४ जगती भी क्या याद करेगी यह सनेह - सेवा - निष्ठा, भ्रातृ-प्रेम की आज हो रही-- है, ऊम्मिले, नव प्रतिष्ठा, यह वियोग-क्लिष्टा, हिय-रति से श्लिष्टा, निष्ठामयी घडी,- करने आई आज मधुकरी, यह रघु-कुल के द्वार खडी, भिक्षा दी दशरथ - कौशल्या- श्री ऊम्मिला • सुमित्रा ने, अपनी झोली भर-भर ली है इस याचिका विचित्रा ने । २७६