पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अम्मिला तुम ने दे २१७ मॅझली मों न हृदय दे दिया, डाला जीवन, वह जीवन-धन, न्यौछावर तुम 'जिस पर होती हो क्षण-क्षण, मै लज्जा से गड जाती हूँ, देख तुम्हारा यह बलिदान, कितना आत्म-निमज्जन गहरा क्या ऊँचा बलिदान-विधान । तुम जलती ही यहाँ रहोगी सुलगाए संस्मरण-अनल, किस मुंह से कुछ कहूँ तुम्हे मैं, ओ मेरी ऊम्मिला विमल? २१८ मैं जाऊँगी अपने पियं सँग, इस मे कुछ तो कल है, पर तुम हाय, लखन आगे- चल सकता किस का बल है? तुम सँग होती तो कट जाते लम्बे चौदह जीवन भी, जगल मगल मय हो जाता, खलता नहीं एक क्षण भी, पर, लक्ष्मण' है बडे हठीले, चलता उन से किसका बसा? लाख स्ववश हो हम नारी, पर- फिर भी है पुरुषो के वश ।" २७८