पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सर्ग जीजी का, -57747 174 २२३ फिर कल्याणमयी जननी की वह मुसक्यान मनोहर-सी, दोनो को गोद मे उठाना, वह कम्पन - गति थर-थर सी, "वह सनेह की धार मौनमय, माँ का वह अनबोलापन, वे क्षण, हम दोनो का बाला- पन का वह मृदु भोलापन, यह निपटारा कि यह अमुक स्तन यह है मेरा, माँ का कहना, दोनो जीजी- के है, बता कहाँ तेरा ? २२४ फिर दोनो का हँस कर माता- की गोदी मे छिप जाना, फिर श्री पितृदेव के कन्धो- पर चढना, फिर इतराना, फिर उन से कुछ बात पूंछना, फिर उनका कुछ समझाना, साम छन्द का, उनके कहने- से, फिर कुछ गायन गाना, फिर उनकी वह तन्मयता, वह-- डुबकी, वह गति थिर, अचला, फिर उन महामहिम योगेश्वर की स्वप्निल मॉखे सजला । २८१