पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९६

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अम्मिला २२५ जीजी, जीजी, तात चरण की वह सागर गम्भीर गिरा, फिर यज्ञायोजन, धनुभजन- फिर, फिर वेदी अग्नि-शिरा, फिर सवरण सभी बहनो का, फिर वे सब सुख की बतियाँ, श्वसुरालय मे स्नेह मयी उन सांसो की पुलकित छतियों, वे रतियाँ सुख की, जीजी, जब- मै-तू के बन्धन टूटे, लुटे राम सीता से और अम्मिला ने लक्ष्मण लूटे । २२६ ये सस्मरण धुएँ से आए उठ स्मृति-नभ-थल भरने को, क्या ये अलम् नहीं है हिय के टुकडे-टुकडे करने को ? इतना खेला, खाया, सुख से प्रतिदिन सग-सग, सीते, और आज तुम किए जा रही यें राग-रग रीते? जीजी, त्रिगुण-विजयिनी, वरदे, मुझ को थोडा सम्बल दो, थोडी सी कल दो, थोडी-सी आशा, थोडा सा बल दो। २८२