पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२९९

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तृतीय सर्ग मम तुम को २३१ यह मुझसे मत कहो कि क्षण भर- भी तुम मुझसे बिछडोगी, हिय मे तुम्हे लिए जाऊँगी, कैसे मुझसे पिछडोगी ? वन-खण्ड मे, अरण्य गहन मे, सदा बसोगी मन में, दुलराती डोलूंगी मै निज हिय मे, वन-धन मे, सन्ध्या के झुटपुटे समय मे, हॅस मुसकाती ऊषा मे, सदा बलाएँ लूंगी मै तब निज मन की मजूषा मे । २३२ तुम्हे छिपाए निज डिबिया मे, वन-वन मे डोलूंगी, मन की बात करूँगी तुम से, रस घोलूंगी, लक्ष्मण-अग्रज बड़े रंगीले गहरा ग छानते है, आर्य-पुत्र, ऊम्मिले, तुम्हारे- हिय की व्यथा जानते है, प्राणो से भी प्रिय लक्ष्मण है उनको, यह तुम जानो हो, उन के मौन सनेह-सिन्धु की गहराई पहचानो हो । मै गुप-चुप २८५