पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३०७

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तृतीय सर्ग तिनके-सी, जीजी, पायो हम २४७ थर-थर लहर-लहर अन्तर से सर-निर्भर बह आने दो, हहर-हहर झर-झर कर उसको अपनी-सी कह जाने दो, बह जाने दो तनिक धीरता, मेरी वन जाओ, मम नेत्राजलियो- से तुम कुछ भीजी-भीजी, रोको मत अपने को, मुझ को, दोनो रो ले, आयो जाती बेला थोडा-सा यह अश्रु-रग घोले।" २४८ भर भर आई चारो आखे, भरभर बरबस बरस पड़ी, सरस हो गई बन जाने की वह अति दाहक अरस घडी, सीता के वक्ष पर ऊम्मिला झुकी सनेह समाश्रित-सी, और ऊम्मिला के शिर पर झुक- सीता गई निराश्रित सी, विमल ऊम्मिला की भुज-लतिका गल-हार हुई, सीता की भुज वल्लरियाँ कुछ शिथिल हुई, लाचार हुई । सीता का २६३