पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३०८

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ऊॉम्मला २४६ देखते रहे दूर से नयनो मे विषाद भर के, वे हो गए समाधि-मग्न-से बीती बात याद करके, इतने ही में दाशरथी श्री आर्य राम, नित धीर मना, वहाँ पधारे गजगति से वे पुरुषोत्तम गभीर मना, छिटकाते अविचलित भावना, धैर्य, तितिक्षा, क्षमता, बल,- आग फूंकते, जीवन देते, राम पधारे अचल, अटल । २५० जिन के पग-डग पर डगमग- डगमग भूमण्डल होता था, जिनकी स्मिति-रेखा पर जग सब अपनी सुधबुध खोता था, जिनके भ-विलास में उद्भव,- प्रलय नाचता रहता था, जिनके अतल हृदय मे करुणा- मैत्री-निर्भर बहता था, पूर्णकाम, निष्काम राम वें वहाँ पधारे, नेह पर्ग, उन की श्री मुख-आभा से भब- "भय भागे, सब क्लेश भंग ।