पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३१

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प्रथम सर्ग चौडे-चौडे, सुखद' गृह-से, बाग मे स्थान है ये- मानो धारे थकित नर के शान्त-से प्राण है ये । माली माला प्रथित करते है यहाँ मोहनी-सी, स्नेहाकृष्टा विमल नवला ग्रीव मे सोहनी-सी । २१ स्वैच्छा वापी, विपुल जल से, प्रेम की गाँठ जोडे,- उत्पीडा से जनित भव की भ्रान्ति को दूर छोडे, बैठी यो है जनकपुर की प्रीति से रीति जो जैसे कोई अवि वल सती नेह का वस्त्र ओढे । २२ आ जाती है पुरजन प्रिया नेह में ये पगी-सी, गोरी बाहे अमल सुपटावेष्टिता है, ठगी-सी मानो कोई लचक लतिका भक्ति के भाव धारे, पुष्पाविष्टा, मुदित मन हो, नाचती कुज-द्वारे । प्रात साय पुरजन यहाँ, भक्ति से “वन्दना को, शान्ति सेवी शमन करते चचला स्पन्दना को- आते है , ज्यो विकल बछडे गाय के, रज्जु तोड़े दौडे आते, भव-विभव का व्याधि-सम्बन्ध छोड २४ ये दापी, ये कमल सर, ये रम्य-से क्प नाना, कल्लोलो से कलित करते ग्राम्य के रूप नाना मानो सारी जनक नगरी, प्रेम की जल्पना को- पानी द्वारा गदित करती कारुणी कल्पना को ।